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ठीकरे, ठोक रे, बंदर और युवराज

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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ठीकरों की फसल लहलहा रही है। जिस हारे हरिया को देखो, वही हार का ठीकरा, अपने साथी के सिर पर फोड़ रहा है। यह तो अच्‍छा है कि ठीकरा सीधा सामने वाले सिर पर ठोक कर फोड़ने का रिवाज है। वरना कहीं अगर ठोकरों से ठीकरे फोड़े जाया करते तो सिर में ठीकरा न लगता और बदले में जोरदार लात लग जाती, जिससे सिर में फोड़े जरूर हो जाया करते। उन फोड़ों की चिकित्‍सा अगले चुनाव तक नहीं की जा सकती। वैसे कोई गारंटी नहीं है कि अगले चुनाव में चिकित्‍सा ही होती। पता लगा कि लात लगने से जो फोड़ा हुआ, उसमें मवाद भर गया और वह रिस रहा है। वैसे भी जो रिसने लगता है, वह नासूर बन जाता है। फिर उसमें न जीत का सुर मिलता है और हार का सुर नहीं, साबुत सूअर ही निकलता है। सूअर के दर्शन से भी बचने वाले कुत्‍तों से लिपटते हैं। उन्‍हें तो गोद में लेकर दुलारने से भी परहेज नहीं करते। कुत्‍ते कुत्‍ते होते हैं, सूअर सूअर और बंदर बंदर।

ठोकरें खाकर भी जो नहीं संभलते, वे बिना पिए भी इधर उधर गिरते हैं, मानो गंदी नालियों को अधिक ठोकेंगे या सड़क को। न वे अनुभव से सीखते हैं, अनुभव मतलब ठोकर। अनुभव को ढोते जाओ, ठोकर खाकर रोते जाओ। ठोकर खाकर भी जो नहीं संभलते, उनके सिर पर ठीकरे फूटा करते हैं। इस बार तो अद्भुत ही हो गया है कि युवराज ने हार का ठीकरा खुद के सिर पर फोड़ लिया है। कितना मजबूत सिर है, लगता है अदृश्‍य हेलमेट पहन रखा होगा।  चाहे पैर लड़खड़ा रहे हैं, चलना तो दूर संभलकर खड़े भी नहीं हो पा रहे हैं। जिनका मानना है कि अपनी हार का ठीकरा दूसरे के सिर पर फोड़ने से अच्‍छा है कि अपना सिर अपने ही ठीकरे से फोड़ सहानुभूति बटोर ली जाए। अगर फोड़ा हो जाए, उसमें मवाद भर जाए, तब जिम्‍मेदारी सामने वाले के नाम थोप दी जाए। अनुभव बंदर है, ठीकरा भी किसी बंदर से कम नहीं है। ठीकरा फोड़ने वाले, चाहे अपने या दूसरे के सिर पर फोड़े, खुद को सिकंदर ही समझता है। हिटलर या मुसोलिनी क्‍यों नहीं समझता, इस बारे में आप ही चिंतन करके कुछ निष्‍कर्ष निकालिए, आखिर पाठकों की भी तो कोई जिम्‍मेदारी बनती है कि नहीं। साबुत या फूटा हुआ विचार हो या अचार, ठीकरा हो या किरकिरा – सब तैयार माल की तरह सामने परोस दिया जाए।

बंदर सिर्फ उछलने कूदने का नाम नहीं है। बंदर नकल मारने का भी खूब फेमस नाम है। बंदर याद कर लेता है। अब वह बंदर नहीं है जो एक टोपी के बदले टोपियां वापिस फेंक दे। टोपी के बदले पत्‍थर फेंकने वाले बंदरों का विकास हो चुका है। सब कुछ याद की करामात है। याद करना मतलब अनुभव से सीखना। इंसान स्‍मरण करता है और खुद का मरण कर लेता है पर सीखता सिर्फ पैसा कमाना है, सबको लूटना अच्‍छे से सीख लेता है। और बंदर एक बार ठोकर खाई तो दूसरी बार उछलकर पार की खाई। टहनी चाहे कितनी ही हिला लो, बंदर कभी नहीं गिरता। गिरता भी है तो अनुभव की तरह संभल जाता है। टहनी चाहे टूट जाए पर बंदर संभलना नहीं भूलता जबकि हमारे देश के चालक बंदर की तरह भी नहीं हो पा रहे हैं। फिर बापू की तरह ही कैसे हो पाएंगे।

बंदर हर दर पर नहीं पाया जाता है जबकि सूअर हर गंदगी में पाए जाते हैं। गंदगी के कारण मन सूअर सूअर हो गंदाता है। हरेक मन के आसपास सूअर ही घूमता नजर है। सड़क और घर के दर पर अनेक संख्‍या में कुत्‍ते पाए जाते हैं, उन्‍हें नेक माना जाता है। वैसे इस बार कोशिशें तो हाथी उपलब्‍ध करवाने की भी जोरदार थीं, हाथी तो नहीं मिला लेकिन मोर जरूर चारों ओर लिपट गए। जबकि हाथी को अगर दर पर सजा लिया जाए तो घर नजर ही न आए। आजकल हाथियों की मूर्तियों ने मिलकर सत्‍ता के दर और घर के रास्‍ते पर रोक लगा रखी है। जिससे वहां पर ठीकरों के कारण सिरों की शामत आई हुई है। ठीकरे और ठोकरें हाथी पर असर नहीं करते हैं। ठीकरे चुनाव के बाद परिणाम मिलने पर ही अवतरित होते हैं जबकि उन्‍हें मालूम है कि हारने वाला अपने ही किसी साथी के सिर पर फोड़ कर पुण्‍य लाभ प्राप्‍त करेगा।

ठीकरे जरा नहीं शर्माते हैं और जैसे बेशर्म हार खिसियानी हंसी हंस दांत फाड़ रही होती है, उसी प्रकार ठीकरे पानी के भरे गुब्‍बारों की तरह फूट रहे होते हैं। इसे आप हार की रंगीन आतिशबाजी समझ सकते हैं जो बे-चमक होती है, पर होती जरूर है, यह बाबा की फोर्थ आई से पहचानी जाती है। जीत की आतिशबाजी सरेआम सब खुद ही चमकाते हैं ताकि उसकी चमक में खुद का चेहरा देदीप्‍यमान हो जाए, इसे जीत का श्रेय लूटना कहा जाता है। जीत मतलब लूटने का प्रमाण पत्र, जिसे मिल गया, वह तो तर गया। यह तरना गंगा से पावन व निर्मल होता है। इसमें तैरने की आवश्‍यकता नहीं होती है। बिना तैरे तरने का सुख यहीं हासिल होता है। ठीकरों की डिमांड चुनाव के दौर में शिद्दत से महसूस की जाती रही है, अगर आप मेरी इस बात से इत्‍तेफाक रखते हैं तो चुनाव और ठीकरों का अंतर्संबंध विकसित कीजिएगा और बतलाइएगा ?

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