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फिज़ूलखर्ची की 26 जनवरी

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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आखिर गण की परेड का दिन आ गया। गण की आज छुट्टी है और तंत्र अपनी पूरी ताकत से इस दिन को सफल बनाने के लिए मुस्‍तैद है। वैसे सचमुच में जिसे परेड कहा जाता है, वह तो राष्‍ट्रपति भवन से शुरू होकर जनपथ, राजपथ से गुजरती हुई लालकिला पर पहुंच कर संपन्‍न हो जाती है। गण की परेड का मामला इससे अलग है। गणतंत्र परेड में शामिल होने के लिए आने वाले गणतंत्र के पहरुओं को कई किलोमीटर दूर बे-बस और बे-कार तथा बे-वाहन कर दिया जाता है फिर उनसे उम्‍मीद की जाती है कि वह राजपथ के दोनों ओर खूब भीड़-भड़क्‍का संपूर्ण शांति के साथ लगाएंगे। शोर मचाने की तो आजादी है परंतु उसकी आवाज नहीं आनी चाहिए। ऐसे अनेक अलिखित नियमों से आबद्ध परेड जब सचमुच में शुरू होती है, तब भी गण पैदल दौड़ –भाग कर उसके दर्शन का असीम आनंद लेना चाहता है। आखिर इस आनंद की सहज प्राप्ति के लिए सरकारी मुलाजिमों को पास और आवाम को बिना पास ही फ्री में पास कर दिया जाता है। बस खानापूरी के लिए कुछ जरूरी जांच निपटाई जाती हैं। कई बार इन जांचों में पाया गया है कि गण खुद ही निपट पिट जाता है और परेड स्‍थल के दीदार से भी वंचित रह जाता है। जबकि इस बार मामला दोहरा उलझाव भरा है। चुनाव सिर पर, अब जनता के सिर पर ही लड़े जा रहे हैं तो जनता के सिर पर ही माने जाएंगे, राजनीतिक दल तो बेपनाह धन खर्च करके इसके प्रति जाभार प्रकट कर देते हैं और नेता अपना भार स्‍वयं उठाने के अभ्‍यस्‍त नहीं होते, उनका भार गण ही उठाता रहा है और उठाता ही रहेगा।

परेड में सैन्‍य प्रदर्शन, धन बल प्रदर्शन और उसकी साज-सज्‍जा के साथ जानवरों को भी इंसान के साथ शामिल किया जाता है। इनमें ऊंट भी रहते हैं और मासूम चिडि़या भी। प्रत्‍येक प्रकार के नेक जानवर भी परंतु अनेक जानवरों के यहां पर पैर अथवा पर फड़फड़ाने पर पाबंदी रहती है। इस बार यह निर्णय भी लिया गया है कि सारी परेड को परदे के पीछे या नीचे से गुजारा जाएगा। अगर परदे के पीछे से गुजारा जाता है तो तीनों ओर बड़े विशालकाय परदे तान दिए जाएंगे और अगर परदे के नीचे से गुजारा जाता है तो जनता को कहा जाएगा कि परेड के दौरान अपनी आंखों को संपूर्ण विश्राम की मुद्रा में रहने दें, चाहे उससे यह ही संदेश क्‍यों न जा रहा हो कि सब सो रहे हैं। वैसे भी देश में जागने का हक सिर्फ राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए है। जनता तो है ही सोने और सुलाने के लिए लेकिन वह सचमुच की नींद नहीं लगी और अगर वह सचमुच की नींद लेती है तो उस पर बरसने वाली लाठियों के लिए वह खुद ही जिम्‍मेदार होगी। इसके लिए सरकारी अमले पर कोई जवाबदेही तय नहीं की जा सकेगी। अतीत की यादों से जो लिखा गया है, यह वही है और इसमें रत्‍ती भर भी बदलाव नहीं किया गया है।

अब आप सोच रहे होंगे कि भला ऐसी परेड का क्‍या फायदा जिसे खुली आंखों से देखा भी न जा सके तो जनता को पहले यह बतलाना होगा कि क्‍या सरकार उसे उनके घर से उन्‍हें बुलाने के लिए गई थी कि आप आकर परेड के दर्शन कीजिए। झांकियों का लुत्‍फ लीजिए। किसने कहा है कि इतनी कड़ाके की ठंड में न तो खुद चैन से रहें और न सुरक्षा में लगी हुई टीमों को चैन से रहने दें। नेपथ्‍य में गीत बज रहा है ‘परदे में रहने दो, परदा न हटाओ, परदा जो हट गया तो भेद खुल जाएगा’। जबकि इन परदों के पीछे हाथियों के होने की कोई विश्‍वस्‍त सूचना अभी तक नहीं मिली है।

परेड से हाथियों का संबंध तो पुराना है पर परदों और हाथियों का एक नया संबंध विकसित हुआ है और इसका प्रभाव अगर गणतंत्र दिवस परेड पर भी दिखाई दे रहा है तो इसमें कतई आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए। बल्कि परेड पर अगर परदा ताना जाता है तो इसकी जिम्‍मेदारी हाथियों की बनती है कि उन्‍हीं के कारण यह स्थिति हुई है। उन्‍हीं की मूर्तियों के कारण कड़ाके की सर्दियों के इस ठंडे माहौल में इतनी गर्मी आई है। सोचा यह भी जा रहा है कि जब सर्दियां चली जाएंगी तब क्‍या यह गर्मी कायम रह पाएगी, अगर यह गर्मी रह गई तो इससे निजात पाने के प्रकृति प्रदत्‍त तरीके तलाशने होंगे।  अन्‍यथा बिजली का होने वाला अपव्‍यय नहीं रोका जा सकेगा। वैसे भी मूर्तियों के बनाने और उन पर परदों के ढकने को भी फिजूलखर्ची मान कर खूब बवाल काटा गया है। लगता है फिजूलखर्ची का हम वर्ल्‍ड रिकार्ड बनाने पर आमादा हो चुके हैं।

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