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अक्ल पर पड़े परदों को उतारा गया और निर्वाचन आयोग के फैसले को अमली जामा पहनाते हुए उन सभी विशालकाय परदों से माया और हाथी की मूर्तियों को ढक दिया गया । यह भी सच्चे मन से बतला दिया गया कि इनके नीचे इनकी और उनकी मूर्तियां ही हैं। इनकी मतलब जो चुनाव लड़ रहे हैं और उनकी मतलब जो इनका चुनाव चिन्ह है। जिस तरह सबको अपनी अक्ल हाथी समान विशाल महसूस होती है तो उस पर से जिन परदों को उतारा गया, वह भी बड़े बड़े ही थे, फिर भी अक्ल से बड़े कुछ हाथी निकले और वह अक्ल के परदे उन हाथियों को छिपा नहीं पाए। अक्ल बड़ी या भैंस की जगह एक नया मुहावरा आजकल इस नए माहौल को समर्पित कर रहा हूं कि अक्ल बड़ा या हाथी और नि:संदेह जिस प्रकार उस जमाने में भैंस बड़ी मानी गई थी, आज हाथी को अक्ल से बड़ा मान लिया गया है। अगर यह माना जा रहा है कि चुनाव रूपी हमाम में हाथियों के नंगे नहाने पर रोक लगाई गई है तो यह गलत नहीं है क्योंकि समाज को फिल्में इस बुरी तरह से नंगा करने पर उतारू हैं कि क्या गाली और क्या देह, सबको परदों से बाहर खींच लिया गया है। ऐसे में हाथियों को नंगा न रखना समाज से अश्लीलता को मिटाने जैसी कार्रवाई ही है। जबकि एक छिपी सच्चाई यह भी सामने आई है कि इनमें से कोई उतना बड़ा नहीं है जितना बड़ा परदा छोटी छोटी सी अक्लों पर डालकर पहले ही फिजूलखर्ची की गई थी। फिजूलखर्ची के मामले में हम सदा से अव्वल रहे हैं। आखिर अपनी और हाथी की मूर्तियां हमने ही बनाईं और हमने ही उन्हें ढका और यह बतलाकर कि इनके नीचे इनकी-उनकी मूर्तियां छिपाई या ढकी गई हैं, हम सच पर भी कायम रहे। सच के मामले में अभी भी हमारा मन बच्चा है। वह गीत फिजां में तैर रहा है – बच्चे मन के सच्चे, इससे अधिक गीत के बोलों को यहां गुनगुनाने की इसलिए जरूरत नहीं है क्योंकि वह अब मन के तारे हैं या मन से इलेक्ट्रिसिटी के तारों को खींच लिया गया है और फूल अब अंग्रेजों के जमाने से मूर्खता का प्रतीक बनकर खिलखिला रहा है और सबको खिलखिलाने या दांत फाड़ने के लिए मजबूर कर रहा है।
वैसे मैं अपने पूर्ववर्ती लेखों में, जब इन मूर्तियों का अनावरण किया गया था, यह विकल्प दे चुका हूं कि इस अवसर पर मूर्तियों को मुखौटे पहनाए जाने चाहिए थी। हाथी की मूर्ति को शेर, कुत्ते अथवा गधे का मुखौटा पहनाने से उन्हें उनके मुखौटों के नाम से ही पहचाना जाता और खर्च भी परदा ढकने से कम आता। फिर सब यह कहते नजर आते कि शेर, कुत्ते और गधे की इतनी बड़ी बड़ी मूर्तियां, जबकि इन्हें स्वीकारने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रहता और हाथियों का जिक्र न होता। ज्यादा से ज्यादा वोटर यह कहते पाए जाते कि जिन्होंने मूर्तियां बनवाई हैं, इनमें उनकी मन की प्रवृति की निखर निखर कर बाहर आ रही है। यह सच है कि कि मूर्तियां का आइडिया बनाने वालों को कुत्ते और गधे माने जाने पर तो एतराज होता पर वह शेर माने जाने पर मन ही मन प्रसन्न हो रहे होते और नाराज भी नहीं होते।
जहां तक परदों के रंग को भी राजनीति का रंग चढ़ाकर बवंडर मचाया गया कि परदा हरा, पीला, नीला या लाल न हो, बस मन की तरह स्याह काला हो। कुत्ते, गधे और शेर के मामले में यह तूल भी तिरपाल न बनता क्योंकि शेर पीले, गधे सफेद(पोश) और कुत्ते सब रंगों में पाए जाते हैं और सबसे अधिक काले कुत्तों की ही महत्ता स्वीकारी गई है। वैसे जहां तक जो सच मैं समझ पाया हूं, समझे तो आप भी हैं परंतु आप मान नहीं पा रहे हैं कि निर्वाचन आयोग और चुनाव हथियाने वालों के बीच सांठ गांठ की यह एक नायाब मिसाल है। ऐसी मिसाल अतीत में तो नहीं मिलती, वर्तमान में कायम हुई है और अब इसका लाभ भविष्य में लेने में भी राजनीतिक दल गुरेज नहीं करेंगे। आखिर वोटरों के वोट रूपी दलदल से बाहर आने में वोटरों के वोट ही काम आते हैं इसलिए दलदल होते हुए भी हथियाए जाते हैं। एक बार फिर अक्ल छोटी रह गई है और जानवर (भैंस की जगह हाथी) बड़ा हो गया है। जानवर मन है, अब तो इसे आपको मानना ही होगा ?
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