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भ्रष्‍टाचार बाबू ने ‘अन्‍ना हमारे’ को पत्र लिखा :-

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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फिल्‍मी गीतों में बार बार कहा गया कि आपस में प्रेम करो देशवासियों। पर देशवासी आपस में प्रेम नहीं कर पाए। उन्‍हें सदा पैसे से प्रेम रहा। कोई उन्‍हें मिला ही नहीं, जो आपस में प्रेम करना सिखलाता। सिखलाने वाला चाहता तो था कि वे आपस में प्रेम करना सीखें। पर वे धन से प्रेम करना सीख रहे थे। आपस की तो छोडि़ए, उन्‍हें तो अपने अच्‍छे और बुरे का भेद ही नहीं रहा। वे जो कार्य करते थे, वे सीधे-सीधे उन्‍हें खुद को नुकसान पहुंचाते रहे। पर वे यह समझते रहे कि फायदा हो रहा है। ऐसी स्थिति में क्‍या किया जा सकता था, इस स्थिति का लाभ उठाया उन्‍होंने, जो सत्‍ता के लालची थे या सत्‍ता में विराजमान थे। वे फायदा उठाते रहे, झोलियां न अपनी, न हमारी – दूर वालों की भरती रहे।

इन्‍हें कहा गया कि आपस में लड़ना मत। पर वे इन्‍हें लड़ाने में कामयाब होते रहे और ये लड़ते-भिड़ते रहे। फायदा लड़ाने-भिड़ाने वालों का ही होता रहा। मुझसे दो-दो हाथ करने या  लड़ने की, मुकाबला करने की बात आती तो सभी अपने को कमजोर समझते। इनकी समझ ऐसी विकसित कर दी गई थी कि इन्‍हें मुझसे से सभी कमजोर दिखलाई देते। कमजोरों को देख देखकर ये भी कमजोर होते गए। इनके कमजोर होने से देश भी कमजोर होने लगा। कितनी ही तरह की विटामिनों की ईजाद की गई परंतु सब नाकारा रहा। संसद में सब उपर से दुखी होते ही दिखते रहे। वास्‍तव में दुखी जनता होती रही। मैं फलता-फूलता रहा। तभी कॉमनवेल्‍थ खेल आयोजित हुए। मैं उसमें भी खूब जी भर कर, सिर डुबो-डुबोकर नहाया।  डुबकी मैं लगा रहा था और कॉमनमैन की वेल्‍थ डूब रही थी। जानकारी तो सभी को थी पर पर सब खुद ड्रम भरने के चक्‍कर में नजरें बचाते रहे। निगाहें भी इधर ही थीं, निशाना भी मैं था, फिर भी मुझे तनिक भी नुकसान नहीं होने पाया।

तभी अन्‍ना आए। आना कहना, हल्‍का है। अवतरित हुए बतलाना, बहुत सही है और इसी बोझ के तले दबकर मैं चीख-चिल्‍ला रहा हूं। पर मेरी चिल्‍लाहट जनता को सुनाई नहीं दे रही है। वैसे भी यह सच्‍चाई है कि अन्‍ना को देखकर मेरे सरपरस्‍तों के हाथ-पांव फूल गए हैं और उनके गलों की गलियों से आवाज ही नहीं निकल रही है, सुनाई तो तब देगी। सरकार के नुमाइंदे भीतर से बुरी तरह भन्‍ना रहे हैं और यह भनक उनके फेस पर बिल्‍कुल साफ दिखलाई दे रही है। अन्‍ना के हाथ में मुझसे मुकाबले के लिए जो गन्‍ना है, वो सरकार के नुमाइंदों के लिए तो लाठी रूप में है। जबकि जनता रूपी भगवान के लिए उसके भीतर बसी मिठास है, उसी मीठी मिठास की सबको आस है। आप चाहे उस मिठास भरे गन्‍ने से मारो किसी को अथवा घुमा दो संसद पर, सबकी खटिया खड़ी कर दो, जिससे खटिया पर सभी सवार खदबदा जाएं, गिर जाएं, औंधे मुंह लुढ़क-पुढ़क जाएं, पर यहां पर यह सब होता देखने की मजबूरी में ही मजबूती है।

चाहते तो सब हैं कि आपकी तरह बनें, मुझसे से लड़ें, कुरीतियों से भिड़ें पर जहां पर किसी को फायदा हो रहा हो, वहां से वे आंखें नहीं मूंद सकते हैं। आता हुआ भला किसे बुरा लगता है। जहां पर आ रहा हो वहां पर तो हम तन और मन से आपके साथ हैं पर जहां पर जाता दिखलाई दे रहा हो, वहां से आप हमें नदारद ही पायेंगे अन्‍ना हमारे। आप नाराज मत होना।

जहां अंधेरे में दूध डालना है तो सब पानी ही डालेंगे, इसीलिए उजाले की महिमा बखानी गई है। आप हैरान मत होना अन्‍ना हमारे। अंधेरे में ऐसा ही होता है। सुबह प्‍योर पानी भरा मिलेगा, जबकि उसमें ऐसे भी होंगे जिनके यहां पानी नहीं आ रहा होगा, पानी की किल्‍लत होगी, वे अपने अपने लोटों से हवा भी उंडेल गए होंगे क्‍योंकि फिंगर डिटेक्‍टर तो गेट पर लगा होगा, उसने तो दर्ज कर लिया होगा कि लोटे के साथ कौन कौन आया था, अब किसने पानी और किसने हवा बहाई-उड़ाई थी, इसकी जानकारी तो फिंगर डिटेक्‍टर को भी नहीं रही होगी। इन सार्वजनिक उपक्रमों में प्‍योर पानी ही एकत्र हो जाए, वो क्‍या कम है, दूध की छोड़ो, वैसे भी रोजाना ही महंगा हो रहा है। पानी की कीमतों पर ही सही, महंगाई रुकी तो हुई है। अब किसी ने भैंस थोड़े ही बांध रखी है। हम तो पब्लिक में से हैं, रात के अंधेरे में हवा-पानी ही डालेंगे। इतना क्‍या कम है कि लोटा भर के वापिस तो नहीं ला रहे हैं, नहीं तो हमें रात में ही मालूम चल जाता कि उसमें सब पानी ही उलीच गए हैं लोटे भर भर के।

अगर दूध का रंग दिखलाई दे, तो सफेद चेहरों के भ्रम में मत आना, दूध की जांच अवश्‍य करवाना, उसमें सिंथेटिक दूध भी हो सकता है। जो दिखने और नाम और स्‍वाद में दूध ही होगा, चैनल चाहे कितनी ही सनसनी फैला रहे हों, वे भी जानबूझकर की गई इस गफलत के झांसे में जरूर उलझ जायेंगे। जबकि उसमें बीमारी का घर ही होगा, सफेद रंग में भी बीमारी रह सकती है। इसे आप श्‍वेत खादी वस्‍त्रधारक नेताओं की मिसाल से अच्‍छे से समझ सकते हैं। यह धन थोड़े ही है कि काला है या सफेद, लाभकारी ही होगा।

अन्‍ना हमारे, यह देश देर से आने और जल्‍दी जाने वालों का है, पर यह उसूल सियासत में नहीं चलता है। आपने इन्‍हें चंद दिनों में ही मां की मम्‍मी की याद करा दी है। फिर भी मुझे विश्‍वास है कि आप कामचोरी और इससे उपजी हरामखोरी में तो मुझे नहीं ढूंढ रहे होंगे और न ढूंढेंगे ही। वो तो वैसे भी अब अधिकार बन चुका है। फिर भी एक बात तो बतलाओ अन्‍ना हमारे, आसमान में कितने हैं तारे, क्‍या आप गिन सकते हैं ?

सुन अन्‍ना सुन, भ्रष्‍टाचार की मीठी धुन

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